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ای قلم تیز کن زبان بیان |
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بهر حمد خدای هر دو جهان |
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آن خدایی که آفریده قلم |
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زان قلم حرف صنع کرده رقم |
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هرچه بودست و هست و خواهد بود |
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ثبت فرمود در صحیفه جود |
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کاملان جمله محو ذات ویاند |
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واصفان عاجز از صفات ویاند |
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خود ثناخوان خود بود یزدان |
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رو ثناءعلیک را برخوان |
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در نعت محمد صلی الله علیه و آله و سلم
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مصطفی را که فیض از مولیست |
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حاجت خواندن و نوشتن نیست |
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شده معلوم او ز روز قدم |
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قلم صنع هرچه کرده رقم |
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لوح محفوظ بیگمان دل اوست |
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قاب قوسین جا و منزل اوست |
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در طبقهای آسمان بنگر |
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سربسر پر ز جوهر و گوهر |
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مانده از باقی نثار است آن |
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شرح معراج را بخوان و بدان |
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تا شوی آگه از کمال نبی |
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نبی هاشمی مطّلبی |
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در اسناد خط به امیرالمؤمنین علی علیه السلام
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پیشتر از زمان شاه رسل |
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خلق را رهنمای نشأءقل |
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سر به خطی که خامه فرسودی |
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خط عبری و معقلی بودی |
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مرتضی اصل خط کوفی را |
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کرد پیدا و داد نشو و نما |
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وین خطوط دگر که استادان |
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وضع کردند هم ز کوفی دان |
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واضعان کاسمشان در این باب است |
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ابن مقله است و ابن بوّاب است |
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سند علم خط به حسن عمل |
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پس بود مرتضی علی ز اوّل |
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زانکه هم اوست در تمام علوم |
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علما را به علم امام علوم |
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وین همه علمها امیر به حلم |
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کسب فرموده از مدینهٔ علم |
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هرکه داند در مدینهٔ علم |
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نقد وقتش شود خزینهٔ علم |
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قال امیرالمؤمنین علی علیه السّلام: علیکُم بحسن الخطّ فانّه من مفاتیح الرّزق
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غرض مرتضی علی از خط |
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نه همین لفظ و حرف بود و نقط |
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بل اصول و صفا و خوبی بود |
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زان اشارت بحسن خط فرمود |
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خط که فرموده است نصفالعلم |
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سرور انبیا به علم و به حلم |
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آن خط مرتضی علی بودست |
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زآن نبی نصف علم فرمودست |
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آنچنان خط کجاست حد بشر |
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قلمی دیگر است و دست دگر |
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قلم پاک آن رفیعجناب |
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خورده از جویبار جنّت آب |
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دست دُرپاش او خزانهٔ رزق |
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خامهٔ او کلید خانهٔ رزق |
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از مدادش چه گویم و ز دوات |
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آب حیوان نهفته در ظلمات |
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ورقی را که خطّ شاه برآنست |
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بوسهگاه ملایک و بشر آنست |
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بشنو این دو بیت را که رواست |
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کز حدیقه بمدح شیر خداست |
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هر عدو را که او فکند ز پای |
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نام بر دستش و زننده خدای |
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نشوی غافل از بنی هاشم |
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وز یدالله فوق ایدیهم |
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مدح شه کاملان چنین گفتند |
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همه دُرهای معنوی سفتند |
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چه قلم بود یا رب آن و چه دست |
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قلم اینجا رسید سر بشکست |
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از جوانی بخط بدی میلم |
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عشق خط راندی از مژه سیلم |
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بر سر کوی کم قدم زدمی |
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تا توانستمی قلم زدمی |
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که ز انگشتها قلم کردی |
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بخیالی خطی رقم کردی |
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از قضا میر مفلسی روزی |
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پیشم آمد بسان دلسوزی |
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قلم و کاغذ و دواتم جُست |
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بیست و نه حرف را ز حرف نخست |
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بنوشت و روان بدستم داد |
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شدم از التفات او دلشاد |
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زانکه ابدال بود و صاحب حال |
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گشته حالش مبدّل الاحوال |
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زین سبب عشق خط زیاده شدم |
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دل گرفتار مرد ساده شدم |
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بعد از آن مدتی برین بگذشت |
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مهر خطّم از آن و این بگذشت |
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نیّت روزهٔ علی کردم |
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قلم مشق را جلی کردم |
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در خیال این که کار بگشاید |
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شه بخوابم جمال بنماید |
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تا شبی خواب دیدم از ره دید |
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که خطم دید و جامهام بخشید |
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خواب را مختصر نمودم باز |
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قصّهٔ خواب هست دور و دراز |
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بیش ازین زین سخن نیارم گفت |
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که ندارم مجال گفت و شنفت |
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تا کسی پردهٔ خرد ندرد |
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در حق من گمان بد نبرد |
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بنده سلطانعلی غلام علیست |
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شهرت خطّ او ز نام علیست |
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روز و شب گوید از نبی و ولی |
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ذکرش این است از خفی و جلی |
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سنهٔ عمر چون به بیست رسید |
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خط سودا ز صفحهام بدمید |
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رو نهادم بکنج مدرسهای |
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بیخیال کجی و وسوسهای |
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روز تا شام مشق میکردم |
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نه غمِ خواب بود و نی خوردم |
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اکثرِ روزها چو ماه صیام |
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روزه میداشتم بصدق تمام |
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شام در روضهٔ رضا بودم |
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سر بر آن آستانه میسودم |
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چونکه از روضه آمدم بیرون |
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پیش مادر شدم بخانه درون |
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خدمتش را بجان کمر بسته |
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در مطلوب خویش در بسته |
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تا بدانستمش نیازردم |
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روزگاری بدو بسر بردم |
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از پدر زان نگفتم و حالم |
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که سفر کرده بود از عالم |
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من از او هفت ساله مانده جدا |
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او بچل سالگی بریده ز ما |
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شرح تقوی و طاعت هر دو |
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نبود از من شکسته نکو |
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رحمت ایزدی بر ایشان باد |
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جایشان در جوار پاکان باد |
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چونکه از مشق بیحد و بیعد
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شدم القصّه شهرهٔ مشهد
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پیش من مهرخان سیم ذقن
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بهر تعلیم خط بوجه حسن
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آمدندی ز دور و از نزدیک
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خواه از ترک، خواهی از تازیک
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جمله یار و برادرم بودند
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همه روزه برابرم بودند
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چشم سَر بستم و گشادم سِر
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دیدن چشم سر چو نیست مضر
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چشم سَر عیببین و معیوبست
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چشم سِر هرچه دید محبوبست
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بعد ازین ترک مدرسه کردم
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کس ندیدی بمدرسه گردم
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سر نهادم به کنج خانهٔ خویش
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گفتم از سوز سینه با دل ریش
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کای دل آن به که ترک خط گویم
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نقش خط را ز لوح دل شویم
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یا چنان سازمش کز آن گویند
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حرف حرف مرا بجان جویند |
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پس نشستم بجد و جهد تمام
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حاصل قصه روزها تا شام
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مشق را چون قلم کمربسته
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پسِ زانوی خویش بنشسته
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ببُریدم ز یار و خویش و رفیق
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آخر الامر یافتم توفیق
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گفت پیغمبر آن شه سروَر
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سر مپیچ از حدیث پیغمبر
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هرکه کوبد دری ز روی نیاز
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میشود عاقبت به رویش باز |
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خط که ما یقرأست شهرت او
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آن اشارت بود بخط نکو
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بهر آنست خط که برخوانند
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نه که در خواندنش فرو مانند
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این که مایقرأش همیخوانی
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نتوان خواندنش بآسانی
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حُسن خط چشم را کند روشن
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قُبح خط دیده را کند گلخن
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اوّلاً میکنم بیان قلم
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بشنو این حرف از زبان قلم |
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که قلم سرخرنگ میباید |
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نه بسختی چو سنگ میباید |
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نی سیاه و نه کوته و نه دراز |
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یاد گیر ای جوان ز روی نیاز |
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معتدل نی سطبر و نی باریک |
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و اندرونش سفید نی تاریک |
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نی درو پیچ و نی درو تابی |
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ملک خط راست نیک اسبابی |
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گر قلم سخت باشد و گر سُست |
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دست را زین و آن بباید شُست |
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بطلب دوده تمامعیار |
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دوده یک سیر و صمغ خوب چهار |
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زاگ و مار و بجوجه زود و چه دیر |
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گیر یکسیر از آن و زین دو سیر |
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صمغ در آب ریز پاک ز خاک |
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تا چو ماء العسل گدازد پاک |
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یکدو روزش بصمغ محکم کوب |
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خانه را از غبار و گرد بشوی |
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تا بصد ساعتش سلایه بکن |
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یاد گیر از من این ستوده سخن |
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زمه از زاگ بهترست بسی |
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وین ندانسته جز فقیر کسی |
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در سیاهی بود ز زاگ ضرر |
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عوض زاگ پس زمه بهتر |
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آب مازو بجوش و دار نگاه |
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تا شود نیک صاف و خاطرخواه |
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زمهٔ نرم را بدو کن ضم |
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روشنت گفتم آنچه بُد مبهم |
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بعد از آن اندک اندکی میریز |
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تجربه میکن و بدو مستیز |
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تا بوقتی که با قوام آید |
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در نوشتن دلت بیاساید |
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زور بازو ازو دریغ مدار |
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ورنه میدان که کردهٔ پیکار |
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کاغذی بهتر از خطایی نیست |
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گرچه چندانکه آزمایی نیست |
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حبّذا کاغذ سمرقندی |
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مکنش رد اگر خردمندی |
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خط بر او صاف و خوب میآید |
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لیک پاک و سفید میباید |
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خواه رسمی و خواه سلطانی |
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جهد کن تا که خوب بستانی |
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هیچ رنگی به از خطایی نیست |
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حاجت آنکه آزمایی نیست |
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زعفران و حنا و قطرهٔ چند |
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از مداد است، بیش از این مپسند |
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خط بر او خوب و هم طلا خوبست |
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زینت خطّ خوب مرغوبست |
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چشم را رنگ سرخ سیر و سفید |
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خیره سازد چو دیدن خورشید |
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بهر خط نیمرنگ میباید |
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تا از او دیدهای بیاساید |
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رنگهایی که تیرهرو باشد |
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خط رنگین بر او نکو باشد |
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در باب آهار و مالیدن بکاغذ
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ساز آهار از نشاسته کن |
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یاد گیر این ز پیر پختهسخن |
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اوّلاً کن خمیر و آب بریز |
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پس بجوشش دمی به آتش تیز |
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پس لعاب سرش بدو کن ضم |
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صاف سازش نه نرم و نی محکم |
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رو به کاغذ بمال و سعی نمای |
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تا که کاغذ نیوفتد از جای |
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کاغذ خویش چون دهی آهار |
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مال آبی به روی او زنهار |
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مهرهٔ کاغذ آنچنان باید |
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که رُخ رَخ درو به ننماید |
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تختهٔ مهره پاک باید شُست |
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زور بازو ولی نه سخت نه سُست |
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با تو ذکر قلمتراش کنم |
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حرفهای نهفته فاش کنم |
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تیغ او نی دراز نی کوتاه |
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تنک و پهن نیست خاطرخواه |
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تا که در خانهٔ قلم گردد |
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وان قلم قابل رقم گردد |
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تا توانی قلم روان متراش |
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دیر بتراش و خویش را مخراش |
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خانهای قلم دراز مکن |
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بهر خط خوب نیست ختم سخن |
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نیز کوته مکن که نیست نکو |
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بشنو این نکته و دلیل مجو |
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اندکی از درون او بگذار |
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با برونِ قلم نداری کار |
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شق گشاده مکن که نیست پسند |
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درِ تشویشِ خویش را در بند |
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شیوهٔ اعتدال مرعی دار |
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ورنه میدان که کردهای بیگار |
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وحشی و انسیاش برابر کن |
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چار دانگ و دو دانگ گشته کهن |
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نی قط پاک و صاف میباید |
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که درو عکس روی بنماید |
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از سطبری نی ملول مباش |
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بهر قط بهترست کردم فاش |
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شرح قط دان که بیشمار بود |
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هرکه دانست مرد کار بود |
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گیر محکم قلمتراش اوّل |
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با نی قط اگر نه احول |
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قلم خویش بر نی قط نه |
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گر بگیری قلم باصبع به |
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ساز محکم قلم بناخن خویش |
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تا که در قط زدن نگردد ریش |
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قط اوّل نکو نمیآید |
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دویمی گر نکو بود شاید |
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قط محرّف کنی خطا باشد |
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متوسّط کنی روا باشد |
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تا صدای قط قلم شنوی |
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غافل از قط آن قلم نشوی |
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که صدای قط قلم نه نکوست |
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بل صدای ندای علّت اوست |
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کاتبا جون قلم تراشیدی |
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خاک بر پشت خامه مالیدی |
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آن قلم را به نقطه تجربه کن |
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بشنو این حرف نو ز پیر کهن |
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از قلم نقطه چون درست آید |
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خوشنویسی اگر کنی شاید |
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نسختعلیق اگر خفی و جلیست |
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واضعالاصل خواجه میرعلیست |
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نسبتش بوده با علی ازلی |
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نسبش نیز میرسد بعلی |
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تا که بودست عالم و آدم |
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هرگز این خط نبوده در عالم |
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وضع فرموده او ز ذهن دقیق |
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از خط نسخ و از خط تعلیق |
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نی کلکش از آن شکر ریز است |
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کاصلش از خاک پاک تبریز است |
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نکنی نفی او ز نادانی |
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بی ولایت نبوده تا دانی |
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کاتبانی که کهنه و نویند |
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خوشهچینان خرمن اویند |
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مولوی جعفر و دگر اظهر |
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خوشنویسان اظهر و اطهر |
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در جمیع خطوط بوده شگرف |
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ز اوستادان شنیدهام این حرف |
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خط پاکش چو شعر او موزون |
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هست تعریف او ز حد بیرون |
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بُد معاصر به مجمعالافضال |
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شیخ شیرینمقال شیخ کمال |
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آنکه شعرش چو میوههای خجند |
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هست شیرینتر از نبات و ز قند |
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همه رفتند از این جهان خراب |
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رخ نهفتند در نقاب تراب |
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بهرشان زآنچه خوانم و دانم |
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روّح الله روحهم خوانم |
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اصول و ترکیب کراس و بسته صعود و تشمیر نزول و ارسال
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ظاهر خط اصول و ترکیب است |
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کرسی و نسبتش به ترتیب است |
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بعد اینها بود صعود و نزول |
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شمره هم داخل است و هست قبول |
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نسختعلیق را مجو ارسال |
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کاندر این باب نیست قال و مقال |
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هست ارسال در خطوط دگر |
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این بدان و ازین سخن مگذر |
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جمع میکن خطوط استادان |
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نظری میفکن در این و در آن |
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طبع تو سوی هرکدام کشید |
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جز خط او دگر نباید دید |
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تا که چشم تو پر شود ز خطش |
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حرف حرفت چو دُر شود ز خطش |
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در دو نوع است مشق و ننهفتم |
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با تو ای خوبرو جوان گفتم |
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قلمی خوان یکی دگر نظری |
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نبود این سخن هنی و مری |
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قلمی مشق کردن نقلی |
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روز مشق خفی و شام جلی |
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نظری دان نگاه کردن خط |
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بودن آگه ز لفظ و حرف و نقط |
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هر خطی را که نقل خواهی کرد |
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جهد کن تا نکوبی آهن سرد |
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حرف حرفش نکو تأمّل کن |
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نی که چون بنگری تغافل کن |
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قوّت و ضعف حرفها بنگر |
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دار ترکیب آن به پیش نظر |
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در صعود و نزول او میبین |
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تا که حظّی بری از آن و از این |
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باش از شمرههای حرف آگاه |
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تا بود صاف و پاک و خاطرخواه |
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چون که خط روی در ترقی کرد |
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بنشین گوشهای و هرزه مگرد |
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مختصر نسخهای به دست آور |
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به خط خوب و دار پیش نظر |
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هم بر آن قطع مسطر و قلمش |
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ساز ترتیب تا کنی رقمش |
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پس از آن مینویس سطری چند |
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خودپسندی به خویشتن مپسند |
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جهد کن تا ز مشق نقلی خویش |
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نشوی غافل ار کنی کم و بیش |
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نقل را اهتمام باید کرد |
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سطر سطرش تمام باید کرد |
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نی که هر سطر چون کنی بنیاد |
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ز ابتدا گر دو حرف بد افتاد |
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بگذاری و باز سطر دگر |
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کنی آغاز از این غلط بگذر |
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کز غلط هیچکس کسی نشود |
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بوریا هرگز اطلسی نشود |
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در بیان آنکه حسن خط پوشیده به تعلیم استاد است که عبارت از تعلیم زبانی است
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نظم فرمودن قواعد خط |
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هست نزد فقیر محض غلط |
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نتوان هم به نثر بنوشتن |
|
و اندر این باب نیست هیچ سخن |
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زآنکه خط را حد و بدایت نیست |
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همچو الفاظ کش نهایت نیست |
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لیکن از مفردات حرفی چند |
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میکنم عرضه بیش از این مپسند |
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هست الف بی و کاف خرد و دراز |
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با سر جیم و هی بدان ز آغاز |
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مدّ سین کشیده و سر عین |
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نزد تو سازمش عیان بی شین |
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چند حرفی که هست صورتشان |
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جمله مانند هم یکی میدان |
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ذکر منظوم حرفها این است |
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گر صواب و اگر خطا این است |
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گرچه از مفرد و مرکّب خط |
|
از الف تا به همزه و به نقط |
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جمله را میتوان قواعد گفت |
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یک دو سه نوع و از کسی ننهفت |
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خط چو ظاهر بود توان گفتن |
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هنر و عیب آن و ننهفتن |
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ای که حرف نکردهای بنیاد |
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به تو تعلیم چون دهد استاد |
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زانکه تعلیم خط به وجه حسن |
|
غایبانه نمیتوان گفتن |
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سرخطت غایب و تو حاضر نی |
|
اعتراض تو هست بیمعنی |
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علم خط دان که هست پوشیده |
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کس ندانسته تا نکوشیده |
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تا نگوید معلّمت به زبان |
|
نتوانی نوشتنش آسان |
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شرح دانستنش ز بیش و ز کم |
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قلمی باشد و زبانی هم |
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معتبر لیک تو زبانی دان |
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تا شود جمله مشکلت آسان |
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حرکت در الف سه میباید |
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گرچه آن از قلم همیآید |
|
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بی و تی و را اگر کشی تو دراز |
|
اوّلش بر اخیر مشرف ساز |
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لیک هرگه نویسیاش کوته |
|
راست باید کشید و بود آگه |
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|
کن سر جیم را دو نقطه و نیم |
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دور او را چهسان دهم تعلیم |
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چون به تحریر درنمیآید |
|
با تو تقریر اگر کنم شاید |
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اول کافها دراز اولی است |
|
آخر کافها چو بی و چو تی است |
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|
مدّ سین همچو بی و تی دراز |
|
اوّلش بر اخیر مشرف ساز |
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این دو مصراع اگر مکرّر شد |
|
بُد ضرورت از آن محرّر شد |
|
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دان سر عین صادی و نعلی |
|
نیست نوعی دگر چو عین علی |
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سر عینی که با صعود بود |
|
یا که بیمد به دال پیوندد |
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این دو نعلی بود دگر صادی |
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با تو گفتم ز روی استادی |
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گرچه این هر دو را به شکل دگر |
|
گه خوشآیندهتر بود به نظر |
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میتوان هم نوشتنش آسان |
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یکی فم الاسد یکی ثعبان |
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هی بود دالفی و ذوصادین |
|
وین دو خط را دهند زینت و زین |
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بعد هی مد اگر بود خوب است |
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زانکه ترکیب خوب مطلوب است |
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میتوان نیز هی ذوصادین |
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که صعودش بود بسان دو عین |
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دو سه نوع دگر بود هی نیز |
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ظاهر است آن به نزد اهل تمیز |
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نیست اصلاح خط پسندیده |
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نزد استاد نیست سنجیده |
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گر بود ریش مد و حرفی چند |
|
که به اصلاح باشد آن در بند |
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بالضرور از قلم کن اصلاحش |
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دور میباش لیک از الحاحش |
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نکنی از قلمتراش اصلاح |
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کاتبان را چه کار با جرّاح |
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در تعیین اوقات و سلوک کاتب
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ای که خواهی که خوشنویس شوی |
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خلق را مونس و انیس شوی |
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خطهٔ خط مقام خود سازی |
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عالمی پر ز نام خود سازی |
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ترک آرام و خواب باید کرد |
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وین ز عهد شباب باید کرد |
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سر به کاغذ چو خامه فرسودن |
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زین عمل روز و شب نیاسودن |
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ز آرزوهای خویش بگذشتن |
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وز ره حرض و آز برگشتن |
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نیز با نفس بد جدل کردن |
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نفس بدکیش را زدن گردن |
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تا بدانی جهاد اصغر چیست |
|
بازگشتش به سوی اکبر چیست |
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وانچه با خود روا نمیداری |
|
هیچکس را بدان نیازاری |
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|
دل میازار گفتمت زنهار |
|
کز دلآزار حق بود بیزار |
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ورد خود کن قناعت و طاعت |
|
بیطهارت مباش یک ساعت |
|
|
همه وقت اجتناب واجب دان |
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از دروغ و ز غیبت و ز بهتان |
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|
از حسد دور باش و اهل حسد |
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کز حسد صد بلا رسد به جسد |
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حیله و مکر را شعار مکن |
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صفت ناخوش اختیار مکن |
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هرکه از مکر و حیله و تبلیس |
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پاک گردید گشت پاکنویس |
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داند آن کس که آشنای دل است |
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که صفای خط از صفای دل است |
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خط نوشتن شعار پاکان است |
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هرزه گشتن نه کار پاکان است |
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گوشهٔ انزوا نشیمن کن |
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یاد گیر این سخن ز پیر کهن |
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مرتضا شاه اولیا حقا |
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در زمان خلافت خلفا |
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انزوا را شعار ساخته بود |
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تا دمی وارهد ز گفت و شنود |
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کردی اکثر کتابت مصحف |
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خط از این یافت رسم و عزّ و شرف |
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وین علومی که در جهانست علم |
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هم در آن دور ریختش ز قلم |
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ور نه در عهد خواجهٔ دو سرا |
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کی بدی فارغ از جهاد و غزا |
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غرض این فقیر از این تحریر |
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این بود از نقیر و از قطمیر |
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کانزوا لازم خط است و علوم |
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گوشهای گیر تا شود معلوم |
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نوجوانی بسی سخن گفتی |
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همه از قصهٔ کهن گفتی |
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از قضا ایستاده بد پیری |
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بهر اخذ و ادای تکبیری |
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گفت او را جوان تو هم سخنی |
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گوی یا از نوی و یا کهنی |
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پیر گفتا اگر نه مدهوشی |
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چه سخن به بود ز خاموشی |
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کاتب مشهدی تو هم بنیوش |
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قول پیر گدا و شو خاموش |
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عمرها کاغذ سفید سیاه |
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ساختی و دلت نشد آگاه |
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ترک تعلیم و این تعلم گیر |
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بهرهای گیر از تکلم پیر |
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این زمان کت سیاه گشته سفید |
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کردهای از حیات قطع امید |
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جهد کن کز کمال آگاهی |
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عذر تقصیر خویشتن خواهی |
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ورق نامه را بگردانی |
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نامه عمر خویش برخوانی |
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داد تعلیم در جهان دادی |
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چون ندیدی حقوق استادی |
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بگذر از کاغذ و دوات و قلم |
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گرچه زینها به عالمی تو علم |
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بود هشتاد و چار عمر عزیز |
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گشته زایل تمام عقل و تمیز |
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در جوانی اگرچه نیز نبود |
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و اندر این باب عذر لنگ چه سود |
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با تو این عذر لنگ از آن گفتم |
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ای پسندیده یار و ننهفتم |
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که ز دست بلای شوم فرنگ |
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شده بودم ز رنج آبله لنگ |
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مدّت چند سال پیوسته |
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بودم از درد آبله خسته |
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خستهدل وز قوی نمانده اثر |
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نتوان گفت شعر از این بهتر |
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خاصه در مشهد خراب یباب |
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اوفتاده خرابتر ز خراب |
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و اندر این درد بیدوا دردا |
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که کسی پرسشی نکرد مرا |
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آشنا حال آشنا پرسد |
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مشهدی را کسی چرا پرسد |
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خواستم ذکر خویش و حالت خویش |
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در قلم آرم و ملالت خویش |
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ذکر وحشت چو وحشت افزاید |
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ترک این حرف اگر کنم شاید |
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ذکر تاریخ سال و ماه کنم |
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تا کی این نامه را سیاه کنم |
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ذکر اتمام نظم این نامه |
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نهصد و بیست زد رقم خامه |
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بود ماه نخست از اوّل سال |
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که به آخر رسید قال و مقال |
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شرح آداب خط ز بیش و ز کم |
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کردم آخر در این رساله رقم |
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آنچه دانستم و ندانستم |
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گفتم القصّه تا توانستم |
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هنر و عیب خود بیان کردم |
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وآنچه بودی نهان عیان کردم |
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ای خوش آنان که عیب پوشانند |
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نه که سر خیل عیب کوشانند |
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حق نگهدار عیبپوشان باد |
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بالنّبی و آله الامجاد |
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کتبه المذنب سلطانعلی المشهدی